सुविचार
  1. हजारों गलतियों के बावजूद आप अपने आपको प्यार करते हो तो फिर क्यों? किसी की एक गलती पर उसे कितनी नफरत करते हो ।- भगवत् गीता
  2. समय का सदुपयोग करके आप दुनिया की हर चीज प्राप्त कर सकते हैं, परंतु दुनिया की सारी दौलत लुटाकर भी गुजरे हुए समय को लौटा नहीं सकते।- महात्मा गांधी
  3. दुनियां वह किताब है जो कभी नहीं पढ़ी जा सकती..... . लेकिन जमाना वह उस्ताद है, जो सब कुछ सिखा देता है। -स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी
  4. अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करो। अपने पूरे शरीर को उस एक लक्ष्य से भर दो, और हर दूसरे विचार को अपनी जिंदगी से निकाल दो। ये ही सफलता की कुंजी है।- स्वामी विवेकानंद
  5. मैं इस बात पर जोर देता हूं कि मैं महत्वाकांक्षी आशा और जीवन के प्रति आकर्षण से भरा हुआ हूं, पर मैं जरूरत पड़ने पर ये सब त्याग सकता हूं और वही सच्चा बलिदान है।- शहीद भगत सिंह
slider slider
पत्रिका विशेषांक

अंतसमणि त्रैमासिक पत्रिका

  • पत्रिका का नाम--- अंतसमणित्रैमासिक पत्रिका।
  • प्रकाशन का स्थान---भोपाल(म.प्र.)A/10सुविधविहार कालोनी एयरपोर्ट रोड बायपास गाँधीनगर462036.
  • प्रकाशन की अवधि----11वर्ष ।
  • संपादक एवं प्रकाशक--सरस्वती कामऋषि।
  • मातृ भाषा ( तेलुगु )एम. ए. हिन्दी साहित्य,बी.एड.,एम. एड. अध्यापन कार्य एवं लेखन कार्य द्वारा सेवारत,गद्य ,पद्य में लेखन अभिरूचि।
  • पंजीयन प्रमाण पत्र--RNI.NO.MPHIN/2013/49539.
  • ISSN NO.2395-7077.

पत्रिका का उद्देश्य

अंतसमणि त्रैमासिक पत्रिका गत 11 वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रही है। पत्रिका मूल रूप से भारतीय संस्कृति को सकारात्मक भूमिका में रखते हुए मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति ,परिवेश ,नैतिक ,सामाजिक मूल्य के साथ ,व्यक्ति विकास से व्यक्तित्व निर्माण ,परिवार विकास से समाज निर्माण ,व मूल्यों के विकास से राष्ट्र निर्माण की दिशा में अनथक, सार्थक ,रचनात्मक पहल करना भी पत्रिका का संकल्प है। इस आधार पर पत्रिका का उद्देश्य भारतीय संस्कृति साहित्य ,समाज, अध्यात्म ,नैतिक व मानवीय मूल्यों की सकारात्मक सोच की संवाहक बनना है। अंतसमणि त्रैमासिक पत्रिका अपने उद्देश्यों में इन 11 वर्षों से विविध अंकों के प्रकाशन में पाठकों के प्रतिक्रियाओं के द्वारा खरी उतरी है। सकारात्मक भाव पाठकों को प्रभावित करते हैं। पत्रिका उत्तरोत्तर समाज निर्माण की दिशा में साहित्य की ऊर्जा से विकास का पथ प्रशस्त कर रही है। पत्रिका को अपने सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए एवं अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आर्थिक अवरोध सबसे बड़ी समस्या है परंतु पत्रिका साहित्य ,समाज, व मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग हैI

संपादकीय

विचार सागर मंथन , बसुधैव कुटुम्बकम्

■ सरस्वती कामषी

'भूमि, जन, संस्कृति' ये तीन शब्द हैं, जिसमें भूमि अर्थात् भूखण्ड । एवं भूखण्ड जिस पर रहने वाले जन और उन जनमानस द्वारा व्यवहृत आचार, विचार रहन-सहन कार्यकलाप भाषा आदि आदि उन की संस्कृति। इन तीनों का मिश्रण (भू, जन, संस्कृति) ही देश, राष्ट्र के रूप में जाना जाता है, या हम इसे यूँ भी कह सकते हैं कि भू, जन, संस्कृति से मिलकर एक देश अथवा राष्ट्र का निर्माण होता है। विश्व में आज जितने भी देश हैं उन सब की संस्कृति ही उनकी पहचान है, हम उनकी व्याख्या उनके प्रतीक चिन्हों से करते हैं और उनका विस्तार समझते हैं।

हमारे देश भारतवर्ष की संस्कृति जिसे हम "भारतीय संस्कृति" कहते हैं उसका भी अपना विस्तार को ज्ञापित करने का साधन है जिसके माध्यम से उस संस्कृति विशेष के विस्तार, प्रसार और समृद्धि का सही सही आकलन किया जा सके। इतिहास गवाह है कि भारत की संस्कृति का अनंत विस्तार था, क्योंकि यह इस बात से आंका जा सकता है कि भाषा, विज्ञान, ज्योतिषी, गणित आदि का ज्ञान विश्व व्यापी है इसलिए ज्ञान का विस्तार भारत की देन है इसका मुख्य कारण हम उन मूल भावनाओं को मान सकते है। हमारी भारत की भूमि की जिन विशेषताओं की चर्चा हम इस आलेख के माध्यम से करना चाहते हैं उसका उद्देश्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन विशेषताओं के कारण भारत ऐसी ऊर्जा से संचालित होता है जो प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि उस ऊर्जा को मिटा सके ऐसी शक्ति अथवा साहस विश्व के किसी देश में नहीं है।

भारतीय संस्कृति की मूल संरचना आधारित है, "वसुधैव कुटुम्बकम्' पर हम भारतवासी इसी सिद्धांत पर चलते हैं, हम यह देखते हैं कि विश्व के अधिकांश देश भारत की जनसंख्या को देखते हुए, उस आधार पर उसे वे 'एक बाजार' की दृष्टि से देखते हैं, इसके ठीक विपरीत भारतवर्ष पूरे विश्व को एक परिवार की दृष्टि से देखता है। यही है हमारा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी पृथ्वी को परिवार भाव से अपनाते हुए, नि:स्वार्थ प्रेम देते हुए सभी देशों से मैत्री भाव रखना हमारी संस्कृति है।

दरअसल 'वसुधैव कुटुम्बकम्' हमारी संस्कृति का वह सशक्त ध्वज है जिसकी सुरक्षित छत्रछाया में भारतीय जनमानस, पूर्ण सुरक्षित व संरक्षित है। संस्कृति ने हमें दिया जीवनोपयोगी संस्कार। कुदरत के नियमों के अनुरूप चलने का आदेश दिया और हमें पूर्णरूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए महत्वपूर्ण सकारात्मक संदेश दिए। संस्कृति के माध्यम से हम जान पाए कि हमारे भीतर दो शक्तियाँ कैसे काम करती हैं और जीवन को प्रभावित करती है।

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् । उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

सुभाषितम् का यह श्लोक इस बात की पुष्टि करता है। इसमें कहा गया है कि जो लोग तेरा मेरा की भावना रखते हैं। ऐसे लोग छोटी सोच के होते हैं इसके विपरीत पूरी पृथ्वी को ही अपना परिवार मानने वाले लोग ही उदारचरित्र के होते हैं जो समग्र को, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर उसका मान रखते हैं।

यह श्लोक जीवन दर्शन के दो रूप प्रस्तुत करता है जो छोटी सोच के हैं वे परिवारों को बांटते हैं। और जो उदार या बड़ी सोच के हैं वे सबको जोड़ते हैं। बाँटने का भाव नकारात्मक शक्ति है और जोड़ने का भाव सकारात्मक शक्ति है इस तरह ये दोनों शक्तियाँ हमारे ही शरीर में कार्य करती हैं। ज्ञान का प्रकाश सकारात्मकता को बल देता है और बढ़ाता है जबकि अज्ञान का अंधकार नकारात्मकता को बल देकर उसे बढ़ाता है। आज की परिस्थितियों में नकारात्मकता के शिकार लोगों का राजनीति में बहुत अधिक प्रवेश या बोलबाला है। जिसका प्रभाव भारतीय जनजीवन पर भी पड़ रहा है।

भारत को एक विकसित, समृद्ध, आत्मनिर्भर सशक्त राष्ट्र बनाना है तो हम देशवासियों को अपनी सकारात्मक ऊर्जा का ही इस्तेमाल करना होगा। इसके लिए यह जरूरी है हम अपनी सोच को इतना उदार बनाए कि जिससे देश का, देशवासियों का, कोई कोना हमारी देखभाल से छूट ना जाए। भारतीयों के जनमानस में पूर्ण विश्वास आत्मनिर्भरता का भाव भरने के लिए ध्यान का दायरा बहुत सशक्त है। शिशु, बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, नर- नारी इन सबके विषयों को सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। इन सबमें अपार शक्तियाँ है जिन्हें क्रियाशील, जागृत करने की जरूरत है। इसके लिए हमारी नीतियाँ ऐसी बने और स्नेहाभिवेदन से लागू हो जिसमें शिक्षा

संस्कार

अनुशासन योग

स्वास्थ्य समर्पण

आदि का प्रशिक्षण संस्थाओं के माध्यम से प्राप्त हों हमारी संस्थाएँ जिम्मेदार हैं सेवा भाव व समर्पण जिनमें हो यह जरूरी है, ऐसी व्यवस्था के लिए बस कारगार नियम बनाने की जरूरत है इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत है। बिना इसके परिणाम सुखद प्राप्त नहीं होंगे। हजारों, हजार नीतियाँ बनाने से कहीं बेहतर तो यह है कि एक सशक्त कानून ही सारे काम कर दें। भारतीय संस्कृति में नारी सम्मान, सत्य, शिक्षा को ऊँचा स्थान मिला। नारी विश्वास से भरी एक सशक्त, ऊर्जावान नागरिक है भारतवर्ष में वह परिवार की धुरी होती है, वह सत्य, विश्वास और ज्ञान से भरपूर है। नीतियों को इन्हें सशक्त करने वाला होना चाहिए, क्योंकि जब एक स्त्री पढ़ी-लिखी होती है तो पूरा परिवार शिक्षित बनता है। नारी द्वारा सत्य, शिक्षा, अनुशासन व संस्कार परिवार को मिले नीतियों को ऐसा होना चाहिए। नारी सशक्त होगी तो पूरा समाज सशक्त होगा तो परिवार, संप्रदाय, समाज, राष्ट्र सबको लाभ मिलेगा। नारी शिशु, बाल, युवा प्रौढ़ व वृद्धजनों की समाधान बना सकती है। समझदार राष्ट्रों को नारी सशक्तीकरण के विषय में बहुत सारा धन खर्च करना चाहिए। इसके लिए सरकार को अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

एक कहावत है कि 'एक तीर से दो निशाने' जिसको इस तरह समझना चाहिए कि हम एक समाधान अथवा उपाय से एक से अधिक समस्याओं को सुलझा सके। यह सब बातें 'उदारचरितानां' के विषय में ठीक लगती हैं। आज के दौर में जो कहावतें चरितार्थ हो रही हैं उनमें रायता फैलाना, जिसकी लाठी उसकी भैंस, अंधा बांटे रेवड़ी चिन्ह चिन्ह के देहि आदि आदि। जो 'लघुचेतमाम्' का विषय बन जाता है। ऐसी दो धारी तलवार की स्थिति में हर नागरिक को

सोचना जरूरी है। हम प्रार्थना में यह तो कहते हैं लोका समरता सुखिनो भवन्तु। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' पर उन पर सुख बरसे ऐसे कृत्य हम नहीं करते। एक शिक्षित, समझदार, कुदरत के नियमों को पालने वाला व्यक्ति अपनी सूझ- बूझ से स्वयं को पूर्ण स्वस्थ रखता है और स्वस्थ्य व्यक्ति सकारात्मक ऊर्जा प्रसार करता है। भारतवर्ष के जनजीवन में सुख का प्रसार करने के लिए एक एक नागरिक महिला/पुरुष को सकारात्मक सोच के साथ सकारात्मक ऊर्जा को प्रसारित करना होगा तभी देश खुशहाल बनेगा।

सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि जब भी हम सामाजिक संस्कारों की चर्चा करें, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का भाव हमारे जीवन में तब ही प्रवाहित होगा जब हम विवाह और परिवार जैसी संस्कारी संस्था पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।

जैसे कि हमें यह विश्वास हो कि विवाह एक पवित्र संस्कार है, विवाह का अर्थ है विशेष निर्वाह जो दो आत्माओं का मिलन ही नहीं वरन् दो परिवारों का आत्मीय सम्मिलन भी है। विवाह में व्याप्त अनेकानेक समस्याओं का समाधान हमारी इस सोच और विश्वास में है।

दूसरी तरफ परिवार वह आधारभूत संस्था है जिसमें मानव मन व शरीर का पोषण शिक्षा, संस्कार से परवरिश मुकम्मल होता है अगर इस देखभाल में जरा भी लापरवाही हुई कि परिवारगत समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इस आधार पर यह तय है कि जीवन में सफलता का मूलमंत्र है।

यदि परिवार में शिक्षा संस्कार, योग्यता, सहयोग, स‌द्भावना व अपने कर्त्तव्यों व जिम्मेदारियों के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता परिवार में सुख लाती है। कोई भी सामाजिक सेवा का कार्य परिवार से ही आरंभ होकर सामाजिक पटल पर स्थापित होता है। परिवार से

ही आरंभ होगा 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का भाव ।

निष्कर्ष यह है कि अन्ततोगत्वा हमें हमारी जड़ों की ओर लौटना होगा, हरेक को अपने परिवार की ओर लौटना होगा। जिस प्रकार पतंग की ऊँचाई नापने का प्रश्न है वह तब तक ही संभव है जब तक वह घिरीं से जुड़ा हो, अगर घिरीं से कट गया तो वह कहाँ गिरेगा, कितना नीचे गिरेगा, कोई नहीं जानता क्योंकि उसका अंत निश्चित है।

पेड़ की हरी-भरी डाली काट कर अलग कर दें तो उसकी हरियाली कुछ घंटों ही कायम रह सकेगी उसके बाद उसका सूखकर नष्ट हो जाना तय है। जड़ से कटकर हम सफल व सकारात्मक नहीं हो सकते।

अगर 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का भाव साकार करना है तो हम सबको सारी भाषाओं व संस्कृतियों का सम्मान करते हुए अपनी संस्कृति में ही लौटना होगा।

गैलरी